पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या का मामला अब जब पूरी तरह रा‍जनीति में उलझता जा रहा है, यह भी कहा जा रहा है कि यदि वे आरएसएस के खिलाफ न लिखतीं तो बच जातीं, के साथ यह भी स्थापित किया जा सकता है कि यदि वे अंगरेजी में लिखतीं तो भी बच जातीं। यह निष्कर्ष इस लेखक का नहीं, बल्कि उस अध्ययन रिपोर्ट के संदर्भ में है, जो ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ (सीपीजे) ने जारी की है। इसके मुताबिक देश में वर्ष 1992 से 2017 तक कुल 41 पत्रकारों की हत्याएं हुईं। ये सभी हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाअों के पत्रकार थे। इनमें कोई भी अंगरेजी का नहीं था। गौरी लंकेश जो भी लिखती थीं, जिस भी भावना से लिखती थीं, उस पर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन यह तय है कि वे कन्नड भाषा की पत्रकार थीं। शायद इसलिए वे हत्यारों का निशाना आसानी से बन गईं।
भारत को एशिया के तीसरे उस सबसे ‘खतरनाक’ देश के रूप में गिना जाता है, जहां पत्रकारिता करना खतरों से खेलना है। सीपीजे हर साल दुनियाभर में पत्रकारों की हत्याअों, उनकी प्रताड़ना, गिरफ्तारी, हत्या के कारण, हत्यारों पर कानूनी कार्रवाई तथा सजाअों पर हर वर्ष एक अध्ययन रिपोर्ट जारी करती है। भारत के संदर्भ में वर्ष 2017 की रिपोर्ट जो खुलासा करती है, वह हिंदी और भारतीय भाषाअों के पत्रकारों को चिंतित करने वाला है। रिपोर्ट के मुताबिक 41 पत्रकारों की हत्याअो में से 96 फीसदी मामलों में आरोपियों को नहीं पकड़ा जा सका है। इससे समझा जा सकता है कि गौरी लंकेश मामले की सीबीआई जांच भी हो जाए तो कुछ नतीजा सामने आएगा, इसकी संभावना कम ही है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि जो पत्रकार मारे गए, उनमें से 46 फीसदी राजनीति कवर करते थे। इसका अर्थ यह है कि राजनीतिक रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की जान को सबसे ज्यादा खतरा है। यह खतरा विचारधारा की भिन्नता, राजनीतिक खेल को उजागर करने अथवा राजनीतिक षड्यंत्रों में फंसने के कारण भी हो सकता है। इसके बाद जिन पत्रकारों की सबसे ज्यादा हत्याएं हुई वे माइनिंग उद्योग से जुड़े हैं। मरने वाले ऐसे पत्रकारों की तादाद कुल का 35 फीसदी है। सबको पता है कि माइनिंग और भ्रष्टाचार का चोली दामन का साथ है। कई बार पत्रकार भी इस खेल का हिस्सा बन जाते हैं, जबकि अनेक पत्रकार इस भ्रष्टाचार को उजागर करने के कारण माइनिंग माफिया का निशाना बन जाते हैं। देश में पत्रकारों की जितनी हत्याएं हो रहीं हैं, उसके कई गुना ज्यादा उन्हें अलग- अलग मामलों में फंसाने की कार्रवाइयां भी चल रही हैं। सीपीजे रिपोर्ट खुलासा करती है कि वर्ष 2015 में 3200 पत्रकारों के खिलाफ संगीन मामले चल रहे थे। इनमें से कइयो को जेल में डाल दिया गया था तो कई अदालतों के चक्कर काट रहे थे।
भारत में पत्रकारिता करना सबसे ज्यादा कठिन बिहार में है। अलग-अलग माफिया द्वारा पत्रकारों की हत्या वहां नई बात नहीं है। सरकार किसी की भी हो, यह सिलसिला अनवरत रहता है। बिहार ही क्यों, मध्यप्रदेश जैसे राज्य भी पत्राकारों के लिए सुरक्षित नहीं हैं। इसी साल तीन पत्रकारों की हत्याएं हुईं। इनमें से मंदसौर जिले के ‍िपपपलिया मंडी में मारे गए पत्रकार ने लिकर माफिया के खिलाफ मुहिम चला रखी थी तो झाबुआ के पत्रकार अक्षय यादव ने व्यापमं घोटाले के मामले उजागर किए थे। हालांकि कुछ मामलों में यह भी सामने आया कि पत्रकारों के पत्रकारिता से इतर भी कुछ हित इन घटनाअोंसे जुड़े हुए थे। लेकिन इससे पत्रकारों की हत्या की गंभीरता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले का मुद्दा कमजोर नहीं होता।
जो मारे गए हैं, वो सभी स्थानीय स्तर के पत्रकार हैं, जिनके सरोकार भी नितांत स्थानीय हैं। लेकिन उनकी तड़प राष्ट्रीय है। ये पत्रकार व्यवस्था की बुनियाद में लगी दीमक से बखूबी वाकिफ हैं और जिन्हें तंत्र के सुराखों का बारीकी से पता है। यही नहीं मारे गए अधिकांश पत्रकार छोटे शहरों या कस्बों के हैं। पि‍पलिया मंडी के हैं, बैतूल के हैं, सीवान के हैं, शाहजहांपुर के हैं। अर्थात छोटे शहरों अथवा कस्बों में पत्रकारिता करना अंगारों पर चलने जैसा है। यह व्यवस्था के अग्निकुंड में खुद आहुति बनना है। यहां पत्रकारिता केवल जांबाजी से ही हो सकती है। क्योंकि जिन संस्थानों के लिए ये लोग पत्रकारिता करते हैं, मौत के बाद वे संस्थान भी अक्सर इनसे पल्ला झाड़ लेते हैं। सरकारों ने यूं तो पत्रकारों की सुरक्षा के कानून बना रखे हैं, लेकिन उन पर अमल बहुत ही कम होता है। क्योंकि सारे मगरों को पानी में ही रहना है और पत्रकारों को इन्ही मगरों से दो-दो हाथ करते अपना दायित्व ‍िनभाना होता है।
गौरी लंकेश भी अगर कन्नडभाषा की पत्रकार नहीं होती तो क्या बच जातीं? क्या अंगरेजी और देशज भाषाअों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ और व्याप्ति अलग अलग होते हैं? क्या अंगरेजी सत्ता और प्रभुता की भाषा होने के कारण वहां वैचारिक असहमतियां सहिष्णुता के दायरे में आती हैं और क्या गौरी द्वारा कन्नड़ में की गई एक खास विचारधारा की तीखी आलोचनाएं ‘मृत्युदंड’ की पा‍त्र होती हैं? इसे भाषा द्वेष के आईने में न देखते हुए समझें कि देशज भाषाअों और छोटे शहरो या गांवों में पत्रकारिता करना आज भी बेहद कठिन और चुनौतियों से भरा क्यों है ? इसका एक उत्तर यह हो सकता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाअो में की गई आलोचनाएं अौर शाब्दिक प्रहार मर्मांतक चोट करते हैं, वह झूठ और नंगई को उजागर करते हैं, वह बेशर्मी और उद्दंडता को उघाड़ते हैं। इसीलिए तंत्र, माफिया और सरकारें इसी पत्रकारिता से ज्यादा खौफ खाती हैं। अ‍ाखिर घर फूंक तमाशा देखने का जज्बा भी इन्हीं देशज पत्रकारों में हैं।
अजय बोकिल
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 9 सितंबर 2017 को प्रकाशित

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