मोदी मिडियावर रागावलेत ?

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माध्यमांचा योग्य उपयोग करून घेत सत्तेचा सोपान सर केलेले पंतप्रधान नरेंद्र मोदी आता मात्र मिडियापासून अंतर ठेऊन आहेत.ते माध्यमांना मुलाखती देत नाहीत,माध्यम सल्लागारही त्यानी अजून नेमलेला नाही शिवाय परदेश दौऱ्यावर जाताना मिडियाला घेऊन जाण्याची पध्दतही त्यांनी बंद केली आहे.असं का करताहेत मोदी ?  ते मिडियावर रागावलेत की मिडियाला ते घाबरतात,? मिडियापासून अंतर ठेऊन राहिल्यामुळं नुकसान कोणाचं आहे,? मिडियाचं की सरकारच.? मोदीना टिट्वटरवर लाखो फॉलोअर्स आहेत,त्याचं फेसबुक पेजला लाईक कऱणारे कोट्यवधी भारतीय आहेत.ते त्याचं म्हणणं सोशल मिडियातून मांडतात त्यामुळं काय त्यांना मिडियाची गरज संपली असं वाटतंय की आणखी काही.बीबीसी हिंदी डॉट कॉमचे वरिष्ठ पत्रकार शांतनु गुहा रे यांनी केलेलं हे विश्लेषण खास बातमीदारच्या वाचकांसाठी..

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी भारतीय मीडिया से दूरी बनाते दिख रहे हैं। मोदी ही नहीं, बल्कि उनकी सरकार में शामिल दूसरे मंत्री भी मीडिया से संवाद करने में हिचक रहे हैं। क्या ये मोदी सरकार की कोई रणनीति है या फिर नरेंद्र मोदी जानबूझ कर मीडिया को तरजीह नहीं देना चाहते। सरकार के इस रवैये से मीडिया को कितना नुकसान हो रहा है? क्या सरकार मीडिया से दूरी बनाकर आम लोगों से संवाद स्थापित कर पाएगी?इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की है बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार शांतनु गुहा रे ने अपने इस विश्लेषण में, जिसे हम ज्यों का त्यों अपने पाठकों के लिए पब्लिश कर रहे हैं।नरेंद्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री बने दो महीने हो रहे हैं। मई में हुए आम चुनाव में उनके नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को ऐतिहासिक जीत मिली थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं, सैकड़ों समाचार पत्रों और 275 खबरिया चैनलों की उपेक्षा करते हुए।

नरेंद्र मोदी के ट्विटर पर 50 लाख से ज्यादा फॉलोअर हैं। वहीं उनके फेसबुक पेज को एक करोड़ से ज्यादा लाइक मिले हुए हैं।विश्लेषकों के मुताबिक मोदी के अब तक के कदम से साफ है कि वो मीडिया से दूरी बनाए रखना चाहते हैं।परंपरा के उलट उन्होंने किसी को अपना मीडिया सलाहकार तक नहीं रखा। उन्होंने 70 साल के जगदीश ठक्कर को अपना जनसंपर्क अधिकारी नियुक्त किया है। दिल्ली में राजनीतिक मामलों के कई पत्रकारों का कहना है कि ठक्कर मीडिया से नहीं के बराबर बात करते हैं।

मीडिया से दूरी

एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया, ‘वे सामान्य तौर पर मुस्कुरा देते हैं, तब हम मुस्कुरा देते हैं। सूचना का कोई आदान-प्रदान नहीं होता।’

भूटान और ब्राजील में हुए ब्रिक्स सम्मेलन की अपनी विदेश यात्रा में मोदी स्थानीय मीडिया के भारी भरकम दल को नहीं ले गए। उनके विमान पर दो समाचार एजेंसी और सरकारी प्रसारक दूरदर्शन के संवाददाता ही मौजूद थे। मीडिया विश्लेषकों के मुताबिक प्रधानमंत्री के आलीशान एयर इंडिया के विमान में जाने वाले पत्रकार आसानी से प्रधानमंत्री तक पहुंच ही जाते हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।सरकार के मंत्रियों और नौकरशाहों को भी कथित तौर पर कहा गया है कि वे मीडिया को नजरअंदाज करें और तभी बोलें जब मोदी कोई ‘आधिकारिक लाइन’ लेने को कहें।वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने कहा, ‘मोदी के रवैये का असर उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों पर भी नजर आ रहा है। मीडिया के प्रति दोस्ताना व्यवहार रखने वाले भी अब पत्रकारों से दूरी बना रहे हैं।’

रविशंकर-जावड़ेकर पर भरोसा

मीडिया के प्रति दोस्ताना व्यवहार रखने वाले वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी पहला बजट पेश करने के बाद चुनिंदा इंटरव्यू ही दिया।नरेंद्र मोदी ने सरकार की ओर से पार्टी के दो पूर्व प्रवक्ताओं केंद्रीय क़ानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद और सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को बोलने की जिम्मेदारी सौंपी है।मीडिया से अपनी दूरी के बारे में मोदी ने अब तक कुछ नहीं कहा है, लेकिन विश्लेषकों की राय में इसकी वजह मोदी का मीडिया के साथ तल्ख़ रिश्तों का होना है।मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी 2002 में राज्य में मुस्लिम विरोधी दंगे हुए थे। इन दंगों में हज़ार से ज्यादा लोग मारे गए थे। मीडिया ने दंगों को रोकने के लिए अपर्याप्त कदम उठाने के लिए मोदी की कड़ी आलोचना की थी। हालांकि मोदी हमेशा इन आरोपों का खंडन करते रहे।एक वरिष्ठ पत्रकार ने गोपनीयता की शर्त पर बताया, ‘मोदी मीडिया पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं करते।’मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल के दौरान कई मंत्री मीडिया से काफी खुल कर बात करते थे। वे अपनी ही सरकार की गलतियों की आलोचना भी करते हैं।

पत्रकारिता का नुकसान

कई प्रमुख घोटालों में संदिग्ध मंत्री टेलिविजन स्टूडियो में अपना पक्ष भी रखा करते थे।पूर्व दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल कहते हैं, ‘हम हर कदम पर मीडिया से काफी खुलकर बातचीत करते थे।’हालांकि शिवम विज जैसे पत्रकार, मोदी तक मीडिया की पहुंच नहीं होने को खराब नहीं मानते।उन्होंने स्क्रॉल डॉट इन वेबसाइट पर लिखा है, ‘दिल्ली का मीडिया केवल पहुंच से संचालित होता था, अब पहुंच वाली पत्रकारिता अपने आप खत्म हो जाएगी। इस तरह की पत्रकारिता के चक्कर में दिल्ली के पत्रकार ये भी भूल जाते थे कि सारे ख़ुलासे एक जैसे नहीं होते।’विज के मुताबिक दिल्ली की मीडिया में बड़े परिपेक्ष्य में चीजों को नहीं देखना, अतीत का ख्याल नहीं रखना, रिपोर्ट्स नहीं पढ़ना इत्यादि शामिल हो गया है। जमीनी पत्रकारिता की जगह पहुंच और स्रोत वाली पत्रकारिता ने ली है, जो सिर्फ सरकारी पक्ष पर यकीन करती है।हालांकि कई लोग मानते हैं कि एक पत्रकार के लिए पहुंच का होना बेहद जरूरी है, खासकर जब आप क्लिक करें सरकार का पक्ष जानने की कोशिश कर रहे हों।

मोदी पर भरोसा

रक्षा मामलों के वरिष्ठ पत्रकार राहुल बेदी के मुताबिक पिछली सरकार के अंदरखाने तक पहुंचना सहज था क्योंकि लोग एक दूसरे की शिकायत किया करते थे, लेकिन अब यह नहीं हो रहा है।बेदी कहते हैं, ‘इसमें कहीं ना कहीं पत्रकारों का नुकसान हुआ है। उनकी पहुंच खत्म हो गई है। वे भरोसा भी गंवा चुके हैं। नौकरशाह और राजनेता अब पत्रकारों पर कोई भरोसा नहीं कर रहे हैं।’हालांकि पूर्व संपादक और स्तंभकार अजय उपाध्याय की राय कुछ अलग है। वे कहते हैं कि मीडिया से मोदी की दूरी को सही अर्थ में देखे जाने की जरूरत है।वे कहते हैं, ‘मोदी को काम तो करने दीजिए, उन्होंने अभी शुरुआत ही की है।’

(साभार:  बीबीसी हिंदी डॉट कॉम)

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