पत्रकारांवर पोलिसांचा हल्ला बोल

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देश के सबसे बड़े प्रदेश की कितनी कड़वी हकीकत है कि ताजनगरी आगरा में कथित बहादुर पुलिसकर्मी धरने की कवरेज कर रहे मीडियाकर्मियों पर लाठियां चलाते हैं, उन्हें लहुलूहान करते हैं। यह कोई जांबाजी नहीं बल्कि पुलिसिया नाकामी का नमूना भर है। वैसे अर्से से मानवाधिकार सिसक रहा है। मानवाधिकार उल्लंघन में यूपी को अव्वल दर्जा हासिल है। पत्रकारों पर होने वाली हमले की वारदातों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितना स्वस्थ माहौल कायम है।

पुलिस तंत्र कठपुतली बना है। थानों में बेजोड़ तैनातियों के फार्मूले की हकीकत किसी से छिपी नहीं है। तैनातियों से संबंधित आरक्षण वाले शासनादेश भी धूल फांक रहे हैं। काबलियत के पैमाने पर सभी थानेदार खरे नहीं उतरते। इस जमीनी हकीकत को परखने के लिए परीक्षण करा लीजिए आधे से अधिक थाने खाली हो जाएंगे। मुख्यमंत्री को मीडिया को बख्शने की नसीहत देनी चाहिए वरना हुनरबाज लोगों के तमाम किस्से निकलेंगे, तो बात दूर तलक जाएगी।

आम जनता से पुलिस का इतना प्रेमिल व्यवहार ओर अपनापन है कि जनता को थाने जाने से ही डर लगता है। वैसे ढेरों पाठ समय-समय पर कागजी तौर पर पढाये जाते हैं। दुराचार ओर छेड़छाड़ जैसी घटनाएं थानों में भी प्रकाश में आ रही हैं। दूसरा पहलू यह कि कानून के रखवाले नेताओं ओर उनके गुर्गों से पिट रहे हैं, सरेआम उनकी वर्दी को नोंचने का काम किया जाता है। यहां कोई कुछ नहीं कर पाता। मुकदमे की बात छोड़िए ऐसे मामलों में तस्करा भी नहीं डाला जाता। पुलिसिया बेचारगी का यह बहुत बड़ा सबूत है। महत्वपूर्ण जनपदों की अनसुलझी वारदातें ओर इनामी व हिस्ट्रीशीटर अपराधियों की फेहरिश्त ही यह बताने के लिए काफी है कि बहादुरी के तीर किस तरह चल रहे हैं।

 

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