पत्रकारांना सर्वाधिक धोका राजकारण्यांचा

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Anil Pandey : भारत में पत्रकारों को सबसे ज्यादा खतरा नेताओं से है। पिछले 25 साल में सबसे ज्यादा उन पत्रकारों की हत्या हुई है जो राजनीतिक बीट कवर करते थे। कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पिछले 25 सालों में जिन पत्रकारों की हत्या हुई है, उनमें 47 फीसदी राजनीति और 21 फीसदी बिजनेस कवर करते थे। ये आंकड़े साबित करते हैं कि देश में पत्रकारों के खिलाफ नेताओं और उद्योगपतियों का एक गठजोड़ काम कर रहा है।

: दैनिक समाचारपत्र ‘हिंदुस्तान’ के सिवान ज़िले के ब्यूरो प्रमुख राजदेव रंजन की गोली मारकर हत्या की गई। हमलावरों ने माथे पर बंदूक रखकर गोली मारी। राजदेव सजीव और निर्भीक पत्रकार थे और वे उस क्षेत्र के बाहुबली गुर्गों के खिलाफ लिखते थे। आप हमें एक शब्द में परिभाषित करते हुए ‘प्रेस्टीट्यूट’ कह देते हैं और यह जानना भी नहीं चाहते कि हमने सुबह का नाश्ता भी किया है या नहीं। यहां भी सही और गलत दोनों तरह के लोग हैं जैसे हर क्षेत्र में होते हैं पर आप बड़ी ही आसानी से हमें प्रमाणपत्र बांट देते हैं। घटना की खबर मिलते ही पुलिस पहुंचती है और पुलिस से पहले या बाद में पत्रकार पहुंचते हैं। उन्हें माइक या नोटपैड और रिकॉर्डर के साथ देखकर आप ख्याली पुलाव पकाने लगते हैं। कभी पूछिएगा किसी पत्रकार से (उन गिने-चुने नामों को यहां न शामिल करें) कि आखिरी बार कब छुट्टी ली थी। कभी जानने की कोशिश कीजिएगा कि उसकी 15-20 हज़ार की सैलरी में आखिरी बार कब वृद्धि हुई थी। कभी समझने की कोशिश कीजिएगा कि वो अपने 8 घंटे की शिफ्ट के बाद क्या करता है? तो आपको पता चलेगा कि हर 8 घंटे के बाद और 4 घंटे की शिफ्ट होती है। उतनी ही तनख्वाह में अपना पूरा दिन झोंक देते हैं वो, उनकी कोई पर्सनल लाइफ नहीं होती। साप्ताहिक छुट्टी होती है पर उसका मिलना ज़रूरी नहीं। परिवार अलग-थलग महसूस करता है। कमरे का किराया भरने के बाद बच्चे की फीस देने में पसीने छूट जाते हैं। कोई पुलिसवाला मारा जाता है तो शहीद कहलाता है। सामान्य नागरिक मरते हैं तो मुआवज़े पर राजनीति होती है पर जब तमाम परेशानियों के बावजूद भी अगर ये अपनी कलम की स्याही को किसी का मोहताज नहीं बनने देते तो मुफ्त में मारे जाते हैं। वो कभी शहीद नहीं होते, उनके परिजनों से कोई नेता मिलने नहीं जाता। उस कम्पनी के आका भी नहीं जाते जहां काम करते-करते वह मर गया। यहां मैं पुलिस को कमतर नहीं कह रही पर पत्रकार कैसे जीता है कभी उससे बैठकर सुनें। हर साल गाजर-मूली की तरह पत्रकारों की मार-काट चल रही है। आपको कितने नाम याद हैं? इसके बाद भी उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सहिष्णु बने रहें। उतनी ही तनख्वाह में आदर्शवादी बने रहें और उनमें आदर्शवाद भी इतना ही हो जिससे उनके ऑर्गेनाइज़ेशन को कोई नुकसान न हो। आप ने प्रेस्टीट्यूट कह दिया.. आप में से कितने लोग किसी निर्भीक पत्रकार को शाबाशी देने जाते हैं? आप में से कितने लोग पत्रकारों की ईमानदारी को समझते हैं और उनकी तकलीफ़ों पर भी वैसे ही सवाल उठाते हैं जैसे एक आम इंसान के लिए करते हों?

आपको पत्रकार किसी तीसरी दुनिया से आए लोग लगते हैं

क्योंकि आपकी तमाम परेशानियों पर अपनी आवाज़ बुलंद रखने के बावजूद

हम अपने हक की लड़ाई नहीं लड़ते।
दूसरों के हक की बात करना
और अपने हक पर चुप हो जाना।
जाने कब नौकरी छिन जाए
इस चिंता में डूबे रहना।
मालिक को खुश रखकर
ऐसे ठेकेदारी पर काम करना।
मुझे डर लगने लगा है मां।
क्योंकि मीडिया लोकतंत्र की उपज है
पर स्वयं लोकतांत्रिक नहीं।
क्योंकि मीडिया की रोटी
बड़े घरों में पकती है
चूल्हे की आंच पर
उनका ही नियंत्रण होता है
ज़रा भी खिसके तो
हाथ भी जलता है और रोटी भी।
(मेरी कविता की कुछ पंक्तियां)

Riwa Singh

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