त्रकारांवर होणारे हल्ले ही बातमी राहिलेली नाही..ती नित्याची गोष्ट बनलीय..हल्ला झाल्यानंतर त्याची चर्चा जरूर होते पण  कारवाईचा आग्रह कोणी धरत नाही.तसेच पत्रकारांच्या आत्महत्या,त्यांचे आजार,त्याच्या कामाचं स्वरूप,व्यवसायीक वाद,कौटुंबिक संकटं आदिंबाबत मात्र मोठी एखादी दुर्घटना जोपर्यंत घडत नाही तोपर्यंत चर्चा होत नाही.कल्पेश ज्ञाग्निक यांची आत्महत्या ,बिलासपूरचे नवभारतचे संपादक निशांत यांचा ह्रदयक्रिया बंद पडून झालेला मृत्यू आणि अश्याच अनेक घटनांची कल्पनाही सामांन्य वाचकांना नसते.ज्यांच्या कानावर अशा बातम्या जातात त्या मंडळीपैकीही कोणी विचारत नाही की,एखादया पत्रकाराला हर्ट अ‍ॅटॅक का येतो ते..मृत्यूच्या छायेत वावरणारे असे अनेक पत्रकार आपल्या अवती-भवती वावरत असताता.आम्हाला ते दिसत नाहीत.जेव्हा ही मंडळी आपल्याला सोडून जाते तेव्हाही त्याबद्दलची नकारात्मक चर्चाच ऐकायला मिळते.या सर्व गोष्टींवर प्रकाश टाकणारी आवेश तिवारी यांची एक पोस्ट वाचनात आली.ऊठ सुठ पत्रकारांच्या नावानं घडे फोडणार्‍यांनी ती जरूर वाचावी की पत्रकार कोणत्या स्थितीत वावरत असतात ते यातून कळेल.तिवारींचा एक मुद्दा मनाला भावला..एका बाजुला सत्तेचे डार्लिंग असलेले सुधीर चौधरी आणि दुसर्‍या बाजूला सत्तेवर हल्ला बोल करणार रविश कुमार असे दोन पक्ष आहेत .मधला मार्ग ठेवला गेलेला नाही.आपण जोपर्यंत या मधल्या मार्गावरून चालायचं धाडस करणार नाहीत तोपर्यंत मृत्यू होतच राहणार ..सविस्तर पोस्टसाठी खालील लिंकवर क्लीक करा.आवेश तिवारी यांच्या फेसबुक वॉलवरून घेतलेली ही पोस्ट येथे मुद्दाम देत आहोत.- संपादक

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संपादकों-खबरनवीसों की मौत की ख़बरें लगातार पढ़-पढ़ कर अवाक हूँ। कहीं दिल का दौरा पड़ रहा तो कहीं कोई आत्महत्या कर ले रहा, कोई कह रहा न्यूजरूम का दबाव है तो कोई कह रहा कार्पोरेट्स का दबाव। मैं फिर से कहता हूँ बुजदिलों के लिए जर्नलिज्म नहीं है। अगर आप न्यूजरूम का प्रेशर नहीं संभाल सकते तो आप प्रेशर कुकर की दूकान खोल लीजिये, प्लीज जर्नलिज्म में मत आइये। कार्पोरेट्स का दबाव महज एक अफवाह है क्योंकि नौकरी आपने चुनी है,अपनी मनमर्जी से चुनी है। लेकिन कुछ तो है जो मौतें हो रही हैं। आखिर क्या है?

1- एक खबरनवीस, एक रिपोर्टर, एक सम्पादक की पहचान उसका काम, उसकी ख़बरें, उसका अखबार होता है। ख़बरों से इतर वो बेहद आम होता है लेकिन काम के असामान्य घंटे, ख़बरों का घटनाओं का दबाव, आर्थिक अभाव, अव्वल बने रहने की जुगत और सबसे बड़ी बात जनता की अपेक्षा उसे एक आम आदमी की तुलना में जल्दी अवसादग्रस्त कर सकती है। यह बात माननी होगी कि ख़बरों का आदमी होने और बाबूगिरी करने में बड़ा फर्क है। खबरनवीस होना और अखबार निकालना किसी युद्ध में होने जैसा है और युद्ध अपने साथ अपनी विभीषिकाएँ लेकर आता है, फिर भी युद्ध लड़े जाते हैं। मैं अपने जितने सम्पादक मित्रों को जानता हूँ उनमें से 90 फीसदी अवसाद या एन्क्जायटी की दवाएं खाते हैं, रक्तचाप की दवाओं का खाना सामान्य सी बात है। यकीन मानिए इनमें से ज्यादातर दबाव उनके खुद के पैदा किये होते हैं। इसी अवसाद की वजह से खबर का आदमी अज्ञात दिशाओं में निरंतर दौड़ता रहता है- कभी प्रेम में पड़ता है, कभी नशे में तो कभी भीड़ में खुश होने की वजहें तलाशने लगता है।

2- खबर का आदमी छोटी-छोटी बात पर अपराधबोध से भर जाता है- न उसके पास खूबसूरत सपने बचते हैं न ही कल के शानदार होने की उम्मीदें। बात अजीबोगरीब मगर सच है कि एक खबरनवीस के प्रेम में पड़ने की संभावना एक आम आदमी की तुलना में काफी ज्यादा होती है लेकिन यह भी सच है कि प्रेम मिलता है या न मिलता है, वो अपने लिए अवसाद के ढेर सारे सामान ढूँढ़ लाता है। पिछले एक साल में आधा दर्जन पत्रकारों को, जिनमें से दो तीन बेहद शानदार थे इन्हीं प्रेम संबंधों की वजह से अँधेरे गलियारे में जाते देखा है। फेसबुक पर कथित नैतिकतावादियों ने प्रेम और सेक्स को लेकर जितने कैम्पेन चलाये ज्यादातर पत्रकारों को लेकर ही चलाये।

3- एक दूसरी वजह भी है- समकालीन पत्रकारिता में एक तरफ सुधीर चौधरी और रोहित सरदाना जैसे लोग हैं जो सत्ता की आँख के तारे हैं, दूसरी तरफ रवीश कुमार हैं जिन्होंने राजनैतिक परिस्थितियों का अपने पक्ष में इस्तेमाल कर खुद को शोषित उत्पीड़ित घोषित करने का तरीका खोज लिया है। हर पत्रकार या तो रवीश कुमार बनना चाहता है या चौधरी, बीच का कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं गया। जब तक बीच के रास्ते पर चलने का जोखिम नहीं उठाया जाएगा, मौतें होती रहेंगी।

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